कर्म भूमि
प्रेमचंद
हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है । उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है । या तो फीस दीजिए, या नाम कटवाइए, या जब तक फीस न दाखिल हो, रोज कुछ जुर्माना दीजिए ।
कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फीस दुगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख को दुगुनी फीस न दी तो नाम कट जाता है । काशी के क्वीन्स कॉलेज में यही नियम था। सातवीं तारीख को फीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख को दुगुनी फीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था कि गरीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जाएँवही हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अनन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है । वह किसी के साथे रियायत नहीं करता। चाहे जहाँ से लाओ, कर्ज़ लो, गहने गिरवी रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फीस जरूर दो, नहीं दूनी फीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। जमीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रियायत की जाती है ।
हमारे शिक्षालयों में भी घुसने ही नहीं दिया जाता। वहाँ स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है । कचहरी में पैसे का राज है, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निदर्यी । देर में आइए तो जुर्माना, न आइए तो जुर्माना, सबक न याद हो तो जुर्माना, किताबें न खरीद सके तो जुर्माना, कोई अनपराध हो जाए तो जुर्माना, शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है । यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफों के पुल बाँधे जाते हैं। य़दि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए गरीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा बेच देने वाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है।
आज वही वसूली की तारीख है। अध्यापकों की मेजों पर रुपयों के ढेर लगे हैं। चारों तरफ खन-खन की आवाजें आ रही हैं। सर्राफे में भी रुपये की ऐसी झंकार कम सुनाई देती है । हर एक मास्टर तहसील का चपरासी बना बैठा हुआ है । जिस लड़के का नाम पुकारा जाता है, वह अध्यापक के सामने आता है, फीस देता है और अपनी जगह पर आ बैठता है । मार्च का महीना है। इसी महीने में अप्रैल, मई और जून की फीस भी वसूल की जा रही है। इम्तहान की फीस भी ली जा रही है । दसवें दर्जें में तो एक-एक लड़के को चालीस रुपये देने पड़ रहे हैं।
अध्यापक ने बीसवें लड़के का नाम पुकारा-अमरकान्त। अमरकान्त गैरहाजिर था।
अध्यापक ने पूछा-क्या अमरकान्त नहीं आया?
एक लड़के ने कहा-आए तो थे, शायद बाहर चले गए हों।
'क्या फीस नहीं लाया है ?'
किसी लड़के ने जवाब नहीं दिया।
अध्यापक की मुद्रा पर खेद की रेखा झलक पड़ी। अमरकान्त अच्छे लड़कों में था। बोले-शायद फीस लाने गया होगा। इस घंटे में न आया, तो दूनी फीस देनी पड़ेगी। मेरा क्या अनिख्तयार है- दूसरा लड़का चले-गोवर्धनदास।
सहसा एक लड़के ने पूछा-अगर आपकी इजाजत हो, तो मैं बाहर जाकर देखूँ?
अध्यापक ने मुस्कराकर कहा-घर की याद आई होगी। खैर, जाओ मगर दस मिनट के अंदर आ जाना। लड़कों को बुला-बुलाकर फीस लेना मेरा काम नहीं है।
लड़के ने नम्रता से कहा-अभी आता हूँ। कसम ले लीजिए, जो हाते के बाहर जाऊँ।
यह इस कक्षा के संपन्न लड़कों में था, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा बैठकबाज। हाजिरी देकर गायब हो जाता, तो शाम की खबर लाता। हर महीने फीस की दूनी रकम जुर्माना दिया करता था। गोरे रंग का, लंबा, छरहरा शौकीन युवक था। जिसके प्राण खेल में बसते थे। नाम था मोहम्मद सलीम।
सलीम और अमरकान्त दोनों पास-पास बैठते थे। सलीम को हिसाब लगाने या तर्जुमा करने में अमरकान्त से विशेष सहायता मिलती थी। उसकी कापी से नकल कर लिया करता था। इससे दोनों में दोस्ती हो गई थी। अमरकान्त उसकी गजलें बड़े चाव से सुनता था। मैत्री का यह एक और कारण था।
सलीम ने बाहर जाकर इधर-उधर निगाह दौड़ाई, अमरकान्त का कहीं पता न था। जरा और आगे बढे, तो देखा, वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ा है । पुकारा-अमरकान्त ओ बुध्दू लाल चलो, फीस जमा कर। पंडितजी बिगड़ रहे हैं।
अमरकान्त ने अनचकन के दामन से आँखें पोंछ लीं और सलीम की तरफ आता हुआ बोला-क्या मेरा नंबर आ गया?
सलीम ने उसके मुँह की तरफ देखा, तो उसकी आँखें लाल थीं। वह अपने जीवन में शायद ही कभी रोया हो। चौंककर बोला-अरे तुम रो रहे हो क्या बात है।
अमरकान्त सांवले रंग का, छोटा-सा दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीस की हो गई थी पर अभी मस भी न भीगी थीं। चौदहै पंद्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी, अंकित हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है । इसके साथे ही उसकी मुद्रा पर कुछ ऐसी प्रतिभा, कुछ ऐसी मनिस्वता थी कि एक बार उसे देखकर फिर भूल जाना कठिन था।
उसने मुस्कराकर कहा-कुछ नहीं जी, रोता कौन है
'आप रोते हैं, और कौन रोता है । सच बताओ क्या हुआ?'
अमरकान्त की आँखें फिर भर आईं। लाख यत्न करने पर भी आँसू न रूक सके। सलीम समझ गया। उसका हाथ पकड़कर बोला-क्या फीस के लिए रो रहे हो- भले आदमी, मुझसे क्यों न कह दिया- तुम मुझे भी गैर समझते हो। कसम खुदा की, बड़े नालायक आदमी हो तुम। ऐसे आदमी को गोली मार देनी चाहिए दोस्तों से भी। यह गैरियत चलो क्लास में, मैं फीस दिए देता हूँ। जरा-सी बात के लिए घंटे-भर से रो रहे हो। वह तो कहो मैं आ या, नहीं तो आज जनाब का नाम ही कट गया होता।
अमरकान्त को तसल्ली तो हुई पर अनुग्रह के बोझ से उसकी गर्दन दब गई। बोला -पंडितजी आज मान न जाएंगे?
सलीम ने खड़े होकर कहा-पंडितजी के बस की बात थोड़े ही है । यही सरकारी कायदा है । मगर हो तुम बड़े शैतान, वह तो खैरियत हो गई, मैं रुपये लेता आया था, नहीं खूब इम्तहान देते। देखो, आज एक ताजा गजल कही है।
पीठ सहला देना :
आपको मेरी वफा याद आई,
खैर है आज यह क्या याद आई।
अमरकान्त का व्यथित चित्त इस समय गजल सुनने को तैयार न था पर सुने बगैर काम भी तो नहीं चल सकता। बोला-नाजुक चीज है । खूब कहा है । मैं तुम्हारी जबान की सफाई पर जान देता हूँ।
सलीम- यही तो खास बात है, भाई साहब लफ्जों की झंकार का नाम गजल नहीं है । दूसरा शेर सुनो :
फिर मेरे सीने में एक हूक उठी,
फिर मुझे तेरी अदा याद आई।
अमरकान्त ने फिर तारीफ की-लाजवाब चीज है । कैसे तुम्हें ऐसे शेर सूझ जाते हैं-
सलीम हँसा-उसी तरह, जैसे तुम्हें हिसाब और मजमून सूझ जाते हैं। जैसे एसोसिएशन में स्पीचें दे लेते हो। आओ, पान खाते चलें।
दोनों दोस्तों ने पान खाएँ और स्कूल की तरफ चले। अमरकान्त ने कहा-पंडितजी बड़ी डाँट बताएंगे।
'फीस ही तो लेंगे'
'और जो पूछें, अब तक कहाँ थे?'
'कह देना, फीस लाना भूल गया था।'
'मुझसे न कहते बनेगा। मैं साफ-साफ कह दूँगा।'
तो तुम पिटोगे भी मेरे हाथ से'
संध्या समय जब छुट्टी हुई और दोनों मित्र घर चले, अमरकान्त ने कहा-तुमने आज मुझ पर जो एहसान किया है...
सलीम ने उसके मुँह पर हाथ रखकर कहा-बस खबरदार, जो मुँह से एक आवाज भी निकाली। कभी भूलकर भी इसका जिक्र न करना।
'आज जलसे में आओगे?'
'मजमून क्या है, मुझे तो याद नहीं?'
'अजी वही पश्चिमी सभ्यता है ।'
'तो मुझे दो-चार प्वाइंट बता दो, नहीं तो मैं वहाँ कहूँगा क्या?'
'बताना क्या है पश्चिमी सभ्यता की बुराइयाँ हम सब जानते ही हैं। वही बयान कर देना।'
'तुम जानते होगे, मुझे तो एक भी नहीं मालूम।'
'एक तो यह तालीम ही है । जहाँ देखो वहीं दुकानदारी। अदालत की दुकान, इल्म की दुकान, सेहत की दुकान। इस एक प्वाइंट पर बहुत कुछ कहा जा सकता है ।'
'अच्छी बात है, आऊँगा।
कर्म भूमि (Karm Bhumi) Part 1 Chapter 2